आम आदमी

 

सुबह सुबह निकले जो घर से,

सोच में दिन का हाल क्या होगा,

काम भी होगा या होगा सनाटा,

तलाश में ख़ुशी की खुद को रोका,

वक्त संभाले न संभले जिससे,

ये आम आदमी है कभी जिसका ज़िकर न होता 

 

 

कभी है चिंता घर परिवार की,

कभी है चिंता बदलते संसार की,

अमृत समझ हर ज़हर है पीता,

दौलत के भूखे रिवाज़ों मैं जीता,

दुश्मन को दोस्त समझ के चल दे,

ये आम आदमी है कभी जिसका ज़िकर न होता

 

 

खिलौना है जिस सरकार के वास्ते,

मुश्किल हैं मुर्दा परस्तों के रस्ते,

हक़्क़ न कोई उसके अभिमान का होता,

सब कुछ सेहन कर अकेले में रोता,

मौत की कीमत न जाने कोई इसकी, 

ये आम आदमी है कभी जिसका ज़िकर न होता 

 

 

क़रीब से देखा ज़िन्दगी को जिसने,

अजीब हैं तमाम ये चेहरे कितने,

सरे ख्वाब जो उसके शबाब जो उसके,

मिट चले फिर आदम से,

सवालों के न जवाब हैं जिसके,

ये आम आदमी है कभी जिसका ज़िकर न होता 

 

धन्यवाद

गौरव सचदेवा

 

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